Tuesday, September 25, 2018

जीवन की विसंगतियों का संवेदनशील चित्रण

. अनिता श्रीवास्तव का यह दूसरा कहानी संग्रह, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामाजिक एवं निजी संबंधों की कटुताओं, जटिलताओं एवं विषमताओं की सतही संवेदनाओं का सजीव चित्रण है। पुस्तक का शीर्षक ‘निःशब्द’ कितना सटीक एवं सार्थक है कि कहानी-दर-कहानी, पृष्ठ-दर-पृष्ठ जीवन की कलुषता, वीभत्सता को बयां करता, उसे निरन्तर चित्रित करता चला जाता है। और आप स्तब्ध, निःशब्द से मर्माहत हो जाते हैं कि ऐसा समाज संवेदनशील व्यक्ति की परिकल्पना से परे है। लगने लगता है कि जो जीवन हम जीते हैं, उसका फैलाव कितना स्वार्थी है कि हम एकदम असहाय से मूकदर्शक बने रह जाते हैं। संग्रह में पन्द्रह कहानियां हैं जो संवेदनात्मक गहराई, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं आन्तरिक भावों की टीस को बखूबी सम्प्रेषित करती हैं।
पहली ही कहानी ‘स्मृतियां’ मां का अपनी संतान के लिए स्नेह, ममता, प्यार जन्म से हर आयु तक शाश्वत रहता है। वह उसके अभाव में केवल स्मृतियों में ही जीती है
कहानी क्या होती है— ‘ये आंसू नहीं मोती हैं’ पढ़ने के बाद ही आप अनुभूत कर पाएंगे कि पापा-बेटी का वात्सल्य शब्दातीत होता है। पिता का बच्चों के प्रति स्नेह, दायित्व एवं लगाव, उसे बच्चों एवं बेटी के सफल भविष्य के लिए दूसरी शादी न करने से बाधित करते हैं तथा चित्रकला के माध्यम से लेखिका भावनात्मक जुड़ाव को ‘रेखाएं भी बोलती हैं, बहुत कुछ बोलती हैं।’
‘फूल मर जाएगा’ किस जीवंतता से बच्ची के विछोह को एक दूसरी बच्ची के बिम्ब में चित्रित किया, साम्प्रदायिक दंगों व उनके प्रभाव को लेकर सामाजिक विद्रूपता के घिनौने पहलू को दर्शाता है।
शीर्षक कहानी ‘निःशब्द’ प्यार को व्याख्यायित करती है कि प्यार एक अहसास है, अनुभूति है, प्यार निःशब्द है जो जीवनभर आपको सालता है, यदि वह पूर्णता की पराकाष्ठा पर नहीं पहुंच पाता। यही है कि दहेज एक खुद्दार लड़की से उसका प्रेम छीन लेता है और वह मजबूरी से घिरी एक एेसी स्थिति पर पहुंच जाती है जहां वह मात्र एक खिलौना-मात्र रह जाती है। ‘मुर्झाया हुआ फूल’ कहानी हृदय-विदारक है, जहां माता-पिता अपनी बेटी को निजी व्यस्तताओं के कारण समय नहीं दे पाते, बेशक पैसा है, सुख है, सुविधा है परन्तु प्यार, वात्सल्य का अभाव बेटी को अपूर्ण ही रखता है। तभी तो वह कहती है ‘नहीं मम्मी तुम झूठ बोलती हो कि तुम्हें मुर्झाए हुए फूल ज़रा भी अच्छे नहीं लगते। एक फूल तुम्हारे घर में सोलह साल से मुर्झा रहा है।’
नारी अस्मिता का प्रश्न, ‘एक सच’ में सार्वभौमिक रूप में उकेरा गया है जहां पुरुष प्रधान समाज में पुरुष का सामन्तशाही व्यवहार आज भी जस का तस है और नारी की निरीहता, असमर्थता इन शब्दों में फूटती है— ‘मुझे कोई नहीं बचा सकेगा। क्योंकि मैं तो हूं ही नहीं, जो है ही नहीं, उसकी रक्षा करने का प्रश्न अपने आप में बेमानी है।’
‘निःशब्द’ कहानी संग्रह किन स्थितियों, परिस्थितियों से गुज़र कर उभरा है, लेखिका के शब्दों में ‘मेरी रचना-वस्तु मेरे इर्द-गिर्द फैला हुआ परिवेश और अतिपरिचित यथार्थ रहा है… जैसे कोई तथ्य एक घाव की तरह मन में धीरे-धीरे रिसता रहता है।’ बस इतना-सा अंकुर ही काफी है कि कहानियां बेहद सामयिक ज्वलन्त विषयों की पृष्ठभूमि को सिद्धहस्तता से प्रेषित करती हैं, उकेरती हैं, जो एकदम मार्मिकता से आपको भीतर तक उद्वेलित कर देती हैं। कहानियों का ताना-बाना एक ओर आपको आरम्भ से अंत तक बांधे रखता है तो दूसरी ओर साहित्यिक मुहावरे भी आपके भीतर पैठते जाते हैं। इस सशक्त भाषा में लिखी गई कहानियां, पठनीय हैं। ‘निःशब्द’ की हृदय-विदारक घटनाओं और परिस्थितियों का आकलन शब्दातीत है।
0पुस्तक : निःशब्द 0लेखिका : डॉ. अनिता श्रीवास्तव 0प्रकाशक : दीपक पब्लिशर्स, जयपुर 0पृष्ठ संख्या : 127 0मूल्य समय जीवन के परिप्रेक्ष्य में स्वाभाविकतः बदलता है। मनुष्य उस समय के अनुसार स्वयं को बदलने का प्रयत्न करता है। यहां स्थायित्व कम एक विशेष किस्म का भटकाव जरूर दिखाई देता है। जब भटकाव के माध्यम से स्थायित्व की परिकल्पना करते हुए व्यक्ति-मन वर्तमान के साथ-साथ अतीत की परख करता है तो मस्तिष्क में उठ रहीं ‘समय-समय की यादें’ उसे निर्देशित करती हैं। कवि राजेश हजारी यादों के निर्देशन में जीवन का जो सच प्रस्तुत करते हैं, वह हमारे समय और समाज का सच है।
सच कहने का साहस कवि कई स्थानों पर दिखाता है। ‘अनाज का बोझ’, ‘सहनशीलता की हद हो गयी’ ‘नस्ल का जूनून’, ‘विलायती भी हो गयी अब भारत सी’ कविताएं उस सच को सामने लाती हैं, जिससे हम गुजरते तो हैं लेकिन उनके सच से मुखातिब होने का कष्ट नहीं उठाना चाहते। बारिश के मौसम में किसान से प्रश्न पूछते उसके सच को कुछ इस तरह प्रस्तुत करता है— ‘बरसते पानी में घर को सी रहा है/ मौसमें गुल में तुझे/ क्या एक भी तिनका नहीं मिला/ गेहूं और सरसों की बाली/ अभी भी फल फूल रही है।’ सच यह भी है कि किसान गेहूं की बाली और सरसों के फूलों से दूर हुआ है। इसलिए भी क्योंकि उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति इसमें हो पाना सम्भव नहीं है।
कवि के सच में समकालीन समस्याएं गहरे में शामिल हैं। वह दो देशों के बीच जारी युद्ध की भयावहता से आहत है। उसके सामने ही सैनिकों की लड़ाई में ‘मां की ममता कराह रही है निरंतर/ बहन की शादी से पहले भाई की हो गयी कलाई सूनी’ बावजूद इसके सरकारें जाग नहीं रही हैं। उनके द्वारा कुछ ऐसा नहीं किया जा रहा है कि जन-मानस शांति की सम्भावना से खुश हो सके— ‘लोक सेवक सो रहे हैं सिर पर बांधे कफ़न/ देश में फैली आतंक की लहर।’
स्त्रियां सुरक्षित हैं या असुरक्षित, इस विषय पर इन दिनों खूब बहस हो रही है देश में। ‘कैसा चलन है कैसा विश्राम है’ कविता में कवि समकालीन हिंदी कविता में अनवरत भोग्या और कमजोर दिखाई जाने की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर नारी को शक्तिशाली मानता है। कविता की ये पंक्तियां स्त्रियों के सबल होने के प्रमाण हैं— ‘नारी तुम अबला नहीं सबला हो/ किसी की पत्नी हो, मां हो,/ बहन हो, देवरानी हो,/ समानता का अधिकार तुम्हारे पास है/ न्यायालय का द्वारा तुम्हारे लिए ख़ास हैं।’
स्मृतियों के सहारे जीवन-समय को परखना भी कविता की नियति है। राजेश हजारी का कर्म में अधिक विश्वास है। कवि का मानना है कि हमें अपने ही परिश्रम का विश्वास करना चाहिए। ‘नस्ल का जूनून/ चंद दिन का होता है/ सुख-दुःख में पलने वाला/ सदा खुशनसीब होता है।’ यह खुशनसीबी उसी को नसीब होती है जो जीवन-समय में तरलता के साथ प्रवाहित होना जानता है।
‘समय-समय की यादें’ लिए राजेश हजारी का यह कविता संग्रह हमारे समय के सच को सरल और सहजता से प्रस्तुत करता है। भावुकता की अधिकता और बहुत कहते जाने की जल्दबाजी में कविताई जरूर कमजोर दिखाई देती है लेकिन अंत तक पाठक के मन-मस्तिष्क में प्रवाह बना रहता है क्योंकि कविताएं उसके अपने समय और संसार के सच को सामने रखती हैं।
0पुस्तक : समय-समय की यादें (कविता संग्रह) 0कवि : राजेश हजारी 0प्रकाशन : साहित्य सागर प्रकाशन, जयपुर 0पृष्ठ संख्या : 112 0मूल्य : रु.200.

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